मैं बचपन में क्या क्या सोचा था।ये बनूंगा बड़े हो के वो बनूंगा बड़े हो के। बचपन में मेरी रुचि विज्ञान में बहुत थी। मैं हर चीज के प्रति जिज्ञासा भाव रखता था। मैडम से पिता जी से सवाल करता रहता था। दूरदर्शन में तरंग नाम का शो आता था दस से साढ़े दस तक। मैं उसे देख के ही स्कूल जाता था। उस शो में दिखाई गई विज्ञान के एक्सपेरिमेंट या खेल स्कूल में दिखाता था। कागज से खिलौने बनाने वाला कार्यक्रम बहुत पसंद था उसका नाम कागज कला था।
मेरी विज्ञान को लेकर रुचि देख मेरे दोस्त मुझे साइंटिस्ट कहते थे। मैं साइंटिस्ट बनना चाहता था। पर मुझे मार्गदर्शक कोई न मिला। मैं गरीब था गरीब बस्ती में रहता था। मुझे सोर्स नहीं मिले। मैं किसी को कहता कि मुझे साइंटिस्ट बनना है तो लोग हंसते और मजाक उड़ाते। क्योंकि मैं था गरीब पर मैने कभी अमीरी नहीं देखी थी ।मतलब मुझे लगता था झोपडी में सभी लोग रहते है। बरसात में सभी के घर पानी टपकता है। सभी लोग कई बार फटे कपड़े को रफू कर के पहनते है। मैं बचपन में अपनी गरीबी से दुखी नहीं था।क्योंकि मालूम ही नहीं था मै गरीब हु। और मालूम नहीं था कि गरीबों की औकात बहुत नीचे होती है।
मुझे पापा जी ने कभी ये अहसास नहीं दिलाया कि हम गरीब है। मुझे लगा सभी की जिंदगी ऐसी ही होती होगी।
मैने बचपन में 5 रुपए से बड़ी करेंसी नहीं देखी थी।
एक बार स्कूल के सहपाठी ने अपने जेब से 10 रुपए निकाला तो मैं हक्का बक्का रह गया।
मैं उस लडके को बहुत अमीर समझने लगा था।
मैं बड़ा होते गया धीरे धीरे मुझे अपनी गरीबी का अहसास भी होने लगा। मेरे सपने भी धीरे धीरे दम तोड़ने लगे। जब मैं दसवीं पास हुआ तो सोचा विज्ञान लू और लिया भी पर उसके बाद मेरे पड़ोसियों ने बोला बहुत पैसा लगता है विज्ञान की पढ़ाई में। इतना पैसा है क्या?
मैं डर के वाणिज्य में आ गया।पर मुझे उसमें रुचि नहीं थी जैसे भी कर के वाणिज्य से ग्रेजुएट हुआ। पर आज मैं कुछ नहीं हु।
मुझमें क्षमता थी पर कोई कोच नहीं मिला मेरा मार्गदर्शन करने को। मैं बहुत कुछ कर सकता था। पर कुछ न कर सका।
आज मैं क्या करू यही अपने आप से पूछ रहा हूं। मैं क्या कर सकता था पर किया नहीं ।क्योंकि माहौल ही ऐसा था मेरा। मेरी सोच बड़ी पर सोच को सही दिशा दिखाने वाला कोई नहीं था